सोमवार, 23 अगस्त 2010

बहस

हुसैन: अभिव्यक्ति और नागरिकता का संकट

कनक तिवारी

शीर्ष कलाकार मकबूल फिदा हुसैन अपने जीवन के अंतिम वर्षों में फिर विवाद और सुर्खियों के घेरे में हैं. उन्हें कतर जैसे छोटे से देश ने नागरिकता देने का प्रस्ताव दिया है. संविधान के अनुसार यदि हुसैन वह नागरिकता कुबूल करते हैं तो वे भारत के नागरिक नहीं रह जाएंगे.


हुसैन पिछले कुछ वर्षों से उग्र हिन्दुत्व के हमलों से परेशान होकर विदेशों में ही रह रहे हैं लेकिन अपनी कला साधना से विरत नहीं हैं. यह भी कहा जा रहा है कि नागरिकता का यह शिगूफा इसलिए विवादग्रस्त हो जाएगा क्योंकि समझा तो यही जाएगा कि हुसैन उन पर हुए पिछले हमलों को देखते हुए भारत में अपनी जान को जोखिम में नहीं डाल सकते. यह भी चखचख बाजार में है कि भारत सरकार को चाहिए कि वह ऐलान करे कि वह हुसैन की रक्षा करेगी और उन्हें घबराने की ज़रूरत नहीं है.

हुसैन और देश के सामने फिलहाल शाहरुख खान का ताज़ा मामला है. उसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि भारत सरकार या राज्यों की सरकारें पूरी तौर पर हुसैन को संभावित हमलों से बचा ही लेंगी. यदि माहौल में तनाव भी रहा तो एक 95 वर्षीय वृद्ध व्यक्ति पर हमला ही तो होगा. लेकिन इसके बावजूद यह हुसैन को भी सोचना होगा कि कतर की नागरिकता स्वीकार कर लेने से क्या वे गैर भारतीय बनना पसंद करेंगे. कट्टर हिंदुत्व या इस्लाम से अभिव्यक्तिकार सरकारों की मदद से सुरक्षित कहां हैं. सलमान रशदी, तस्लीमा नसरीन, असगर अली इंजीनियर वगैरह भी पूरी तौर पर हमलों से कहां मुक्त रह पाए.

हुसैन की कुछ ताज़ा पेंटिंग्स विवाद का कारण बनी हैं. कलात्मकता और अभिव्यक्ति के मानदंडों के बावजूद कला का यदि देश के जीवन से कोई संबंध है तो उस पर प्रयोजनीय बहस की जानी चाहिए. लोकतंत्र शासन का वह तरीका है जहां खोपड़ियां गिनी जाती हैं तोड़ी नहीं. दरअसल ताज़ा झंझटों के भी पहले से हुसैन के चित्र विवाद का कारण रहे हैं. उस पर एक नज़र डालना ज़रूरी होगा.

सबसे बुनियादी और बहुचर्चित मामला मकबूल फ़िदा हुसैन का है, जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लगातार हमारी व्यापक चिंता और सरोकार का केन्द्र रहा है. हुसैन को लेकर एक विवाद तब हुआ, जब भोपाल से प्रकाशित 'विचार मीमांसा' नाम की पत्रिका ने उनके द्वारा बनाई गई कलाकृतियों के कुछ चित्र ओम नागपाल के लेख 'यह चित्रकार है या कसाई' शीर्षक से छापे. महाराष्ट्र के तत्कालीन शिव सेनाई संस्कृति मंत्री प्रमोद नवलकर ने वह लेख पढ़ कर मुम्बई के पुलिस कमिश्नर को जो लिखित शिकायत भेजी, उसे पुलिस ने आनन-फानन में भारतीय दण्ड विधान की धारा 153(क) और 295(क) के अंतर्गत पंजीबद्ध कर लिया. ऐसे अपराध विभिन्न धार्मिक समूहों में जान बूझकर धार्मिक उन्माद भड़काने के लिए वर्णित हैं.

इस घटना को लेकर हुसैन के समर्थन में देश भर में बुद्धिजीवी अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधर बनकर खड़े हुए. हुसैन के विरुद्ध आरोप यह था कि उन्होंने सीता और शिव-पार्वती सहित अन्य हिन्दू देवी-देवताओं को लगभग नग्न अथवा अर्द्धनग्न चित्रित किया, जो धर्म और हिन्दुत्व की भावना के प्रतिकूल है. तर्क यह भी था कि एक मुसलमान को हिन्दू देवी देवताओं के चित्रण की इज़ाजत नहीं मिलनी चाहिए. भाजपा के विचारक और उपाध्यक्ष केआर मल्कानी यहां तक पूछते हैं कि हुसैन ने आज तक वास्तविक अर्थों में एक भी कलाकृति बनाई है?

हुसैन को विद्या की देवी सरस्वती के जिस कथित नग्न रेखांकन के लिए प्रताड़ित किया गया, वह उन्होंने उद्योगपति ओपी ज़िन्दल के लिए 1976 में किया था.


उनके आलोचक कुछ बुनियादी बातें जान बूझकर भूल जाते हैं. भारतीय अथवा हिन्दू स्थापत्य और चित्रकला के इतिहास में देवी देवताओं को नग्न अथवा अर्द्धनग्न रूप में चित्रित करने की परम्परा रही है. अजंता, कोणार्क, दिलवाड़ा और खजुराहो की कलाएं विकृति के उदाहरण नहीं हैं. कर्नाटक में हेलेबिड में होयसला कालखंड की बारहवीं सदी की विश्व प्रसिद्ध सरस्वती प्रतिमा एक और उदाहरण है. कुषाण काल की लज्जागौरी नामक प्रजनन की देवी को उनके सर्वांगों में चित्रित किया गया है. तीसरी सदी की यह प्रतिमा नगराल (कर्नाटक) में आज भी सुरक्षित है. इस तरह के उदाहरण देश भर में मिलेंगे.

असल में देवी देवताओं को वस्त्राभूषणों में चित्रित करने की अंतिम और पृथक परम्परा उन्नीसवीं सदी में राजा रवि वर्मा ने इंग्लैंड के विक्टोरिया काल की नैतिकता के मुहावरों से प्रभावित होकर डाली. भारतीय देवियां औपनिवेशिक पोशाकों में लकदक दिखाई देने लगीं जो कि पारम्परिक भारतीय मूर्तिकला से अलगाव का रास्ता था. कलात्मक सौन्दर्यबोध से सम्बद्ध नग्नता से परहेज़ करना भारतीय दृष्टिकोण नहीं रहा है. वह सीधे सीधे पश्चिम से आयातित विचार है. अब यह उनके हाथों में है जो भारतीय तालिबान बने हुए हैं. उन्हें अपनी संस्कृति की वैसी ही समझ है.

मशहूर चित्रकार अर्पिता सिंह, मनजीत बावा और जोगेन्द्र चौधरी ने दुर्गा, कृष्ण और गणेश के ऐसे तमाम चित्र बनाए हैं, जिनमें नए और साहसिक कलात्मक प्रयोग किए गए हैं. लेकिन वे मुसलमान नहीं हैं. बंगाल में नक्काशी करने वाले हिन्दू-मुसलमान कलाकारों ने सत्यनारायण और मसनद अली पीर को एक देह एक आत्मा बताते हुए सत्यपीर के नाम से मूर्तियां बनाई हैं. वे उसी श्रद्धा का परिणाम हैं जो हरिहर और अर्द्धनारीश्वर की छवियों में दिखाई पड़ती है. यह अलग लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू की बात है कि मुस्लिम कठमुल्ले ऐसे नक्काशीकारों और कलाकारों को मस्जिदों से हकाल रहे हैं कयोंकि वे हिन्दू देवताओं को चित्रित करते हैं.

हुसैन को विद्या की देवी सरस्वती के जिस कथित नग्न रेखांकन के लिए प्रताड़ित किया गया, वह उन्होंने उद्योगपति ओपी ज़िन्दल के लिए 1976 में किया था. यह भी एक विचित्र संयोग है कि अपने अपूर्ण सरस्वती रेखांकन को बाद में हुसैन ने उन्हें खुद ही कपड़े पहना भी दिए थे , वह भी विवाद के कई वर्ष पहले. भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के पूर्व अध्यक्ष, प्रख्यात कला समीक्षक एससेआाँर दो टूक कहते हैं कि ''कोई मुझे बताकि देश में सरस्वती की एक भी पारम्परिक प्रतिमा अपने धड़ में कपड़ों से लदी-फंदी हो.''
कला समीक्षक सुमीत चोपड़ा के अनुसार हमारे पारम्परिक सौंदर्यशास्त्र में शरीर में ऐसा कुछ नहीं है कि उसे दिखाने से परहेज किया जाए या छिपा कर उसे महत्वपूर्ण बनाया जाए. उनके अनुसार आधुनिक भारतीय चित्रकला में हुसैन भी ऐसे हस्ताक्षर हैं जो हमारी लोक संस्कृति की छवियों को आधुनिक माध्यम और आकार देते हैं. इन कलाकारों ने जो अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि हासिल की, वह एक तरह से भारत के लोक कलाकारों, कारीगरों, नक्काशीकारों और मूर्तिकारों की दृष्टि का विस्तार है. मशहूर चित्रकार अकबर पदमसी को भी शिव और पार्वती की कथित नग्न मूर्तियां चित्रित करने के लिए आपराधिक मामले में फंसाया गया था लेकिन बाद में न्यायालय ने उन्हें विशेषज्ञ राय लेने के बाद छोड़ दिया.

कलात्मक दृष्टि का दावा करने के बाद हुसैन के आक्रमणकारी यह भी फरमा सकते हैं कि शिव और पार्वती के नग्न चित्रों को देखकर उन्हें वह गुस्सा नहीं आता जो हुसैन द्वारा किए गए सीता के चित्रण से हुआ है क्योंकि शिव और पार्वती को इन रूपों में देखने की उनकी सांस्कृतिक आदत हो गई है ! हुसैन ने इंदौर और धार में भी कलात्मक शिक्षण पाया. 1996 में धार में ग्यारहवीं सदी की निर्मित भोजशाला पर बजरंग दल ने राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद की अनुकृति में जबरिया कब्जा करना चाहा. राजा भोज के इस विश्वविद्यालय में एक हिन्दू मंदिर और एक मस्जिद दोनों हैं. स्थापत्य कला के इस संग्रहालय में सरस्वती की एक बेजोड़ प्रतिमा रखी है. उसके लंदन में होने के कारण हुसैन ने शायद उसे वहीं देखा हो. इस दुर्लभ प्रतिमा का चित्र एएल बासम की पुस्तक 'द वन्डर दैट वाज़ इंडिया' में प्रकाशित है. संभवत: हुसैन को इस कलाकृति से भी प्रेरणा मिली हो.

इस कलाकृति में भी उतनी ही नग्नता है जितनी हुसैन के चित्रांकन में. संघ परिवार ने यह मांग की है कि लंदन से इस कलाकृति को वापस बुलाकर उसे भोजशाला में स्थापित किया जाए ताकि उसका सीता मंदिर के रूप में उपयोग हो सके.

खतरा केवल अभिव्यक्ति की कलात्मकता के विवाद का नहीं है. सच्चाई के मुंह पर तालाबंदी जैसा काम ताला उद्योग के वे लोग कर रहे हैं जो अपने गढ़ के अली हैं. शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे यह कहते हैं कि यदि हुसैन हिन्दुत्व में घुस सकते हैं तो हम उनके घर में क्यों नहीं घुस सकते. अहमदाबाद की प्रसिद्ध हरविट्स गुफा गैलरी में हुसैन और वीपी ज़ोशी द्वारा संयुक्त रूप से संचालित कला-केन्द्र पर हमला किया गया और लगभग डेढ़ करोड़ रुपयों की पेंटिंग्स को नष्ट कर दिया गया. इनमें से कई पेंटिंग गणेश-हनुमान, शिव, बुद्ध आदि की भी थीं. 1998 में हुसैन की दिल्ली में लगी प्रदर्शनी पर हमला किया गया और सुप्रसिद्ध चित्रकार जतिन दास को भाजपा के एक पूर्व सांसद ने मारा. सीता को हनुमान द्वारा छुड़ाए जाने सम्बन्धी एक चित्र को लेकर संघ परिवार की बदमिज़ाजी की पुनरावृत्ति की गई.

आरोपों की सत्यता की पड़ताल के बाद या तो इन्हें अफवाह कहा जाना चाहिए या अफवाहों के पुष्ट होने पर हुसैन के विरुद्ध एक फतवा, जिससे उबर पाना उनके लिए सरल नहीं होगा.


इस सीरीज के तमाम चित्र लोहिया के समाजवादी शिष्यों के आग्रह पर हुसैन ने 1984 में बनाकर दिए थे. बद्रीविशाल पित्ती के अनुसार हुसैन की इस चित्र-रामायण का संदेश नास्तिकता , साम्यवाद और नेहरूवादी आधुनिकता से अलग हटकर भारतीय सांस्कृतिक सत्ता को कलात्मक आधुनिकता से लबरेज़ कर देना था. असल में इस तरह मुंह में कपड़ा ठूंसने की हरकतों का इतिहास नया नहीं है. यह जानकर आश्चर्य और दु:ख होता है कि इस विचारधारा के एक अधिक प्रचारित बौद्धिक और महत्वपूर्ण व्यक्ति वीड़ी सावरकर ने शिवाजी के बारे में यह तक कह दिया था कि उन्हें हिन्दू महिलाओं के शीलहरण का बदला मुसलमान शत्रुओं की महिलाओं के बलात्कार से लेना था.

यही हाल हुसैन का है. उन पर अपने लेख में ओम नागपाल ने निम्नलिखित आरोप भी लगाए हैं, जो कलात्मक अभिव्यक्ति से अलग हटकर उनकी मानसिकता और प्रतिष्ठा का प्रश्न हैं. आरोपों का उत्तर दिए बिना भी उन्हें जान लेने में कोई हानि नहीं होगी: ''कलकत्ता में जब उसके चित्रों की पहली प्रदर्शनी लगी थी तो महान कला समीक्षक ओसी ग़ांगुली ने उसे जैमिनी राय के साथ गधारी बताया था.'' एक दूसरा दृष्टांत देते हुए नागपाल कहते हैं : ''अभी कुछ ही वर्ष पूर्व दिल्ली में आधुनिक भारतीय चित्रकला के पितामह राजा रवि वर्मा की जन्मशती के अवसर पर उनके चित्रों की एक प्रदर्शनी लगी थी. चित्रकला की इस गौरवपूर्ण एवं वैभवशाली परम्परा पर गर्व करने के बजाय एहसान फरामोश हुसैन ने मांग की कि दिल्ली से रवि वर्मा के चित्रों की प्रदर्शनी हटा ली जाए.'' इन आरोपों की सत्यता की पड़ताल के बाद या तो इन्हें अफवाह कहा जाना चाहिए या अफवाहों के पुष्ट होने पर हुसैन के विरुद्ध एक फतवा, जिससे उबर पाना उनके लिए सरल नहीं होगा.

सरस्वती, सीता, हनुमान बल्कि दुर्गा तक के चित्रों की कलात्मक नग्नता को सौंदर्यशास्त्र का हिस्सा समझकर हुसैन को कदाचित बरी कर दिया जाए लेकिन जब हमारी पीढ़ी के एक बहुत महत्वपूर्ण लेखक उदय प्रकाश ख्वाजा नसरुधीन की कथा कहते कहते अपनी राय व्यक्त करते हैं, जिसमें वे हुसैन पर व्यंग्य करते हैं तब ऐसी स्थिति में उदय प्रकाश को सरसरी तौर पर खारिज भी नहीं किया जा सकता - ''उनकी प्रसिद्धि स्कैंडल्स के चलते नहीं थी. इसके लिए वे किसी फाइव-स्टार होटल में लुंगी लपेटकर नंगे पांव घुसकर रिसेप्शनिस्ट' और सिक्योरिटी गार्ड से झगड़ा करके अखबारवालों के पास नहीं गए थे. उन्हें किसी मॉडल' की नंगी देह पर घोड़ों के चित्र बनाने की जरूरत नहीं पड़ी थी. इस प्रसिद्धि की खातिर उन्होंने न तो किसी मशहूर हीरोइन को बलशाली बैल के साथ संभोगरत चित्रित किया था, न किसी शक्तिशाली तानाशाह को देवी या दुर्गा का अवतार घोषित किया था. अपनी प्रसिद्धि के लिए ख्वाजा नसरुधीन को किसी अन्य धार्मिक समुदाय की किसी पूज्य और पवित्र देवी के कपड़े उतार कर उसे किसी कला-प्रदर्शनी में खड़ा करने या सूदबी द्वारा अंतर्राष्ट्रीय कला-बाजार में नीलामी लगाने की जरूरत नहीं पड़ी थी. उनकी ख्याति के पीछे कोई स्कैंडल नहीं था.''

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GHAZIABAD, Uttar Pradesh, India
कला के उत्थान के लिए यह ब्लॉग समकालीन गतिविधियों के साथ,आज के दौर में जब समय की कमी को, इंटर नेट पर्याप्त तरीके से भाग्दौर से बचा देता है, यही सोच करके इस ब्लॉग पर काफी जानकारियाँ डाली जानी है जिससे कला विद्यार्थियों के साथ साथ कला प्रेमी और प्रशंसक इसका रसास्वादन कर सकें . - डॉ.लाल रत्नाकर Dr.Lal Ratnakar, Artist, Associate Professor /Head/ Department of Drg.& Ptg. MMH College Ghaziabad-201001 (CCS University Meerut) आज की भाग दौर की जिंदगी में कला कों जितने समय की आवश्यकता है संभवतः छात्र छात्राएं नहीं दे पा रहे हैं, शिक्षा प्रणाली और शिक्षा के साथ प्रयोग और विश्वविद्यालयों की निति भी इनके प्रयोगधर्मी बने रहने में बाधक होने में काफी महत्त्व निभा रहा है . अतः कला शिक्षा और उसके उन्नयन में इसका रोल कितना है इसका मूल्याङ्कन होने में गुरुजनों की सहभागिता भी कम महत्त्व नहीं रखती.